सोमवार, 4 जनवरी 2010

उग्रवाद:शिबू सोरेन की गलतफहमी न.2

झारखंड मे नक्सलवाद कोई समस्या नही है!! वेशक झारखंड के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने शिबू सोरेन का इरादा झारखंड को अपने सपनो के अनुरूप ढालना है.वे चाहते है कि उनकी सरकार उन वेवश लाचार लोगों तक ईमानदारी से पहुंचे,जिनकी गोद मे वे पले--बढे है.और एक अच्छा नेता भी वही होता है,जो अपने जमीन के दुःख दर्द को समझे तथा उस दिशा मे सार्थक पहल ही न करे अपितु ठोस कारगर कदम उठाये.लेकिन आदिवासियो के एक बडे तबके मे "दिशोम गुरू", मीडिया की नज़र मे "गुरूजी" तथा विरोधियो की जुबान पर "गुरूघंटाल" के नाम से चर्चित झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया,जो अब भाजपा और आजसू के सहयोग से प्रांत का मुखिया बन गये है,उन्होने पदभार संभालते ही जिस तरह के सोच प्रकट की है,उसका अवलोकन करने से मात्र यही स्पष्ट होता है कि विशुद्ध ग्रामीण परिवेश की राजनीति करने वाला यह नेता अनेक गलतफहमियो का शिकार है.जिसे दूर किये वगैर झारखंड जैसे बदहाल प्रांत का विकास संभव ही नही है.आईये हम बात करते है मुख्यमंत्री शिबू सोरेन उर्फ गुरूजी की गलतफहमी न.2 की.गुरूजी का साफ कहना है कि झारखंड मे नक्सलवाद कोई समस्या नही है. इसे बडी समस्या बनाया गया है. इसमे शामिल सब गांव का छोकडा लोग है.मीडिया मे बात का बतंगड बनाया जा रहा है.बकौल मुख्यमंत्री शिबू सोरेन किसी के घर मे किसी ने जान मार दी,उसके बदले की कार्रवाई मे हिंसा कर बैठता है.इसी का नाम उग्रवाद दे दिया गया है.वेशक इस तरह की स्पष्ट सोच के पीछे गुरूजी के ईरादे कुछ भी रहे हो.लेकिन जिस तरह की उग्रवाद की बात कर रहे है,झारखंड जैसे राज्य मे उस्की ताजा स्थिति कुछ अलग ही तस्वीर लिये हुये है.यदि वे आज भी अपने जवानी काल के उग्रवादी अनुभव का आंकलन समेटे समाधान ढूंढ रहे है तो उनकी यह बहुत बड़ी गलतफहमी है.पुलिस--प्रशासन का मनोबल तोडने वाला है.क्योंकि आज का उग्रवादी उनके जैसा तीर--धनुष लिये हुये लुक्का--छिपी का खेल नही खेल रहा है अपितु ए.के.47,आरडीएक्स,डाईनामाईट सहित अत्याधुनिक सेटेलाईट उपकरणो से लैस है और समुचे शासन--तंत्र पर भारी पड रहा है. गुरूजी को यह भी नही भूलना चाहिये कि स्कूलो,सामुदायिक भवनो,रेल स्टेशनो--पटरियो को उडाना और राज्य के विकास कार्यो से जुडे सरकारी गैर सरकारी कर्मियो तो दूर राजनीतिक दलो से भारी भरकम "लेवी" वसूलना आखिर क्या है? ऐसे मे गुरूजी सरीखे प्रांत के मुखिया की इस तरह मानसिकता फिलहाल एक तरह से उग्रवादियो के सामने संवैधानिक संस्थाओ द्वारा घुटने टिकवाने की मानी जा रही है और खुद के उग्रवादी अनुभवो के सहारे उग्रवाद की ताजा स्थिति का आंकलन और उसका समाधान ढूंढना एक गलतफहमी है भी.

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