रविवार, 28 फ़रवरी 2010

एक तो करै़ल दूजे नीम चढ़ाय:होली कैसे मनाएँ?

एक तो करेला दूजे नीम चढ़ाय.जी हाँ,जिस किसी से भी होली के हाल की चर्चा करता हूँ या होली की बधाई देता हूँ ,उक्त कहावत मुहँ चिढ़ाने लगती है.लोग-बाग खासकर गरीव-मध्यम वर्ग के लोगों के चेहरे पर गुलाल की जगह हवाईयाँ उड़ने लगती है और उनकी आँखों से रंगों के बजाय आंसू ढलकने लगती है.यह स्थिति पहले से बढ़ी मंहगाई के बीच ऐन होली के पहले कांग्रेसनीत यूपीए सरकार द्वारा पेश की गयी असहनीय बजट से उत्पन्न हुयी है.
दाल-रोटी महँगा,चावल-सब्जी महँगी,चाय-चीनी महंगा. लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि उनका पेट कैसे भरेगा, बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी,सबके नंग-धड़ंग तन कैसे ढकेगा.नेता-अधिकारी लोग देश को लूटने में लगे हैं.जबाबदेह सरकार भी अमीर-पूंजीपतियों के तलवे चाटते नज़र आ रही है.देश में कहीं भी शिक्षा,स्वास्थ्य, बिजली,पानी,रोजगार आदि की समुचित व्यवस्था नहीं.दूसरी तरफ करों का बढ़ता बोझ.पहले से ही पीठ-पेट एक किये किसान-मजदूर वर्ग की क्या दास्तां,खाद-बीज-पानी-डीजल आदि के बढ़े कीमत ने तो उन्हें जीते जी मार डाला है.कितनी वेशर्म सरकार और उसकी व्यवस्था है कि खेती-बारी का लागत खर्च तो बढ़ाते जा रही है लेकिन,जीवन के तमाम रंग समेटे उनके उत्पादन मूल्य में कोई बढ़ोतरी नहीं करती है.इनकी होली का आंकलन करते ही मन-मस्तिष्क पसीज जाता है. ऐसे में समझ में नहीं आता कि हम होली कैसे मनाएं?

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