क्यों लगता है ऐसा हो गया अंधा भारत का अपना कानून !!
त्रासदीही है कि एक लड़की के बलात्कार और हत्या के आरोपी की सजा इस बिना पर कम करदी जाए कि वह शादीशुदा है और एक लड़की का बाप भी। अभी कुछ साल पहले कीदलील कुछ ऐसी थी कि युवक एक आईपीएस अफसर का बेटा है और साथ ही भावी वकीलभी।
यह युवक संतोष कुमार सिंह है जिस पर 14 साल पहले कानून की विद्यार्थी प्रियदर्शिनी मट्टू के बलात्कार और हत्या का आरोपहै। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को सुनते हुए 3 दिसंबर, 1999 की दोपहरयाद आ गई जब एडिशनल सेशन जज जी पी थरेजा ने 499 पेज के अपने फैसले में कहाथा- हालांकि मैं जानता हूं कि संतोष ने ही इस अपराध को अंजाम दिया है लेकिनमैं उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी करता हूं। ऐसा लगता है कि कानून उनलोगों के बच्चों पर लागू नहीं होते जिन पर खुद कानून को लागू करने कीजिम्मेदारी होती है। अपने फैसले में थरेजा ने माना था कि दिल्ली पुलिस नेजांच के दौरान संतोष को मदद दी। मामले में इंस्पेक्टर ललित मोहन ने झूठेसबूत गढ़ने और अभियुक्त के बचाव का माहौल तैयार करने में भूमिका निभाई। बादमें सीबीआई के हाथों जांच की कमान आने पर भी डीएनए के साथ छेड़छाड़ दिखाईदी। इसलिए यह जांच भारतीय साक्ष्य
अधिनियम की धारा 45 मददगार साबित नहीं होसकी। यहां तक कि प्रियदर्शिनी के नौकर और महत्वपूर्ण गवाह को ढूंढा नहींजा सका। (यह बात अलग है कि प्रिंट का एक जुझारू पत्रकार इस नौकर को बिहारके एक गांव में ढूंढ निकालता है और उसका पक्ष छाप भी देता है) कुल मिलाकरयह मामला पुलिस और जांच एजेंसियों की सांठगांठ और लापरवाही का नमूना साबितहुआ। उंगलियों के निशान, हेलमेट के रखाव और अंदरूनी कपड़ों तक के मामले मेंजो उदासीनता बरती गई, उसने इस मामले को कमजोर बनाने में कोई कसर नहींछोड़ी। पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायण ने इस मामले की दुर्भाग्यपूर्ण हालतदेखते हुए कहा था कि न्याय के रक्षा मंदिर अब केसिनो में तब्दील हो गए हैं। थरेजा की टिप्पणियों ने दिल्ली पुलिस के बेहद पक्षपातपूर्ण रवैयेकी धज्जियां उड़ा दी थीं। शरीर पर 19 जख्मों के निशान लिए प्रियदर्शिनी कीजांच करने में पुलिस ने न सिर्फ कोताही बरती थी बल्कि पूरी लीपापोती भी थीकी क्योंकि उस समय संतोष के पिता पुलिस महानिरीक्षक थे। खैर, 1999 की उस दोपहर संतोष तकरीबन हंसते हुए पटियाला हाउस कोर्ट से बाहर निकला था।उसकी खुशी और फुर्ती देखने लायक थी। उस दिन मीडिया के लिए उसकी एक तस्वीरको कैद करना बड़ा मुश्किल साबित हुआ था और उसकी हंसी देख कर किसी भीकैमरामैन के लिए विश्वास करना आसान नहीं था कि यही वह अभियुक्त है जिस परधारा 302 और 376 कोई असर नहीं छोड़ सकी। वैसी ही हंसी जिसने रूचिका ममालेमें आला पुलिस अधिकारी राठौर को जेल भिजवा दिया था। लेकिन कहानीयहीं खत्म नहीं हुई। केस आगे बढ़ता गया। प्रियदर्शिनी का परिवार हमेशा केलिए दिल्ली छोड़ कर जम्मू जा बसा था लेकिन वे न्याय पाने के लिए सक्रियरहे। प्रियदर्शिनी के दोस्तों ने जस्टिस फार प्रियदर्शिनी की मुहिम चलाई औरइंडिया गेट पर जाने कितनी मोमबत्तियां जलाकर सोते हुए समाज और न्यायिकव्यवस्था को झकझोरने की कोशिश की। जेसिका लाल और नीतिश कटारा मामले की तरहप्रियदर्शिनी की हत्या को भी जनता और मीडिया ने बराबर जिंदा रखा। इन दोनोंने ही न्यायालिका को कुछ भी भूलने नहीं दिया। लेकिन जनता और मीडियाकी एक आदत थोड़े से न्याय के बाद थक जाने की भी होती है। ताजा फैसले केतहत संतोष के बीवी-बेटी की दुहाई दी गई है। लगता है अब एक बार फिर जनता औरमीडिया का काम शुरू होता है। क्या परिवार नामक संस्था से जुड़ जाने सेअपराध कम हो जाता है और अपराधी अतिरिक्त संवेदना का पात्र बन जाता है, वहभी ऐसी स्थिति में जब कि अपराधी अब भी अपने अपराध को कबूल करने को राजीनहीं।.....@अनुभव भारतीय
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