गुरुवार, 26 मई 2011

झारखंड :चिरकुटों के हाथ में चौथा स्तंभ

By Satya Sharan Mishra
झारखंड में पत्रकारिता की साख काफी गिर चुकी है, महज एक दशक में यहां मीडिया ने जिस तेजी से उत्थान किया उसी तेजी से इसका पतन भी हुआ, प्रिंट मीडिया की स्थिति तो थोड़ी ठीक भी है अनुभवी लोगों के देखरेख में अखबार निकल रहा है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो कुछ चल रहा है वो पत्रकारिता में आने वाले नस्ल के लिए एक बुरा संदेश है. क्योंकि झारखंड का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अब उन फर्जी पत्रकारों के हाथ की कठपुतली बन चुका है जो कल तक निजी टीवी चैनलों की आईडी लिए एक अदद बाईट के लिए दर-दर भटकते फिरते थे. बिल्डरों, नेताओं और अधिकारियों से हफ्ता-महिना वसूलने वाले ये चिरकुट पत्रकार आज रिजनल चैनलों के मालिक बन बैठे हैं. जिन्हें समाचार संकलन से ज्यादा ब्लैकमेलिंग का अनुभव है. नेताओं-बिल्डरों की ब्लैकमनी को व्हाईट करने के लिए खुले झारखंड के कई रिजनल चैनलों के शटर डाउन हो चुके हैं, लेकिन चैनल चलाने वाले तथाकथित सीईओ और एडिटरों नें अपनी जेबें भर ली. साथ ही कई युवा पत्रकारों के भविष्य को अंधकार में छोड़ दिया, जिसमें से कइयों नें तो कलम से दोस्ती तोड़ ही दी और कई पत्रकार आज भी बेरोजगार हैं, और बाकि जो बचे जिनकी पत्रकारिता मजबूरी या जूनून थी उन्होंने महानगरों का रुख कर लिया. दरअसल पत्रकारिता का जो ग्लैमर टीवी पर नजर आता है हकीकत में इसका चेहरा कितनी वीभत्स है ये जनना हो तो झारखंड के किसी न्यूज चैनल में काम करके देखिये, यहां आप देख पाएंगे कि कैसे अच्छे और अनुभवी पत्रकार हर दिन चैनल मालिकों के निजी हितों के बली चढ़ते हैं. इन चैनलों में जॉब की कोई सिक्युरिटी नहीं है, कब आपके हाथ बांध दिये जाएं या फिर कब बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए इस बात का डर हमेशा जेहन में रहता है. कई चैनलों के प्रमुख ने तो दफ्तर को ही अय्याशी का अड्डा बना लिया, जिसकी खबर लगभग सभी पत्रकार बंधुओं को है मगर कोई आवाज उठाना नहीं चाहता, शायद हम भी इसी सिस्टम में ढ़ल चुके हैं और ऐसी छोटी-मोटी बातों को गंभीरता से लेना नहीं चाहते. झारखंड में सिर्फ नये पत्रकारों का ही बुरा हाल नहीं है कई बुजुर्ग पत्रकार भी शोषण और उपेक्षा की मार झेल रहे हैं, जिन्होने पत्रकारिता को मिशन समझकर अखबारों और चैनलों को दशकों से अपनी सेवा दी वो आज भी वहीं खड़े हैं जहां से उन्होने शुरुआत की थी. झारखंड के रिजनल चैनल एक एक ऐसा बाजार हैं जहां थोक के भाव पत्रकारों की बहाली और विदाई होती है, कुल मिलाकर मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि बेहतर काम करने वाले और सच्चे पत्रकारों के लिए झारखंड की मीडिया में कोई जगह नहीं है. और अगर पत्रकारिता की यही परिभाषा है तो शायद मै गलत हूं. लेकिन अगर मैं सही हूं तो हमें इस सिस्टम को बदलने के लिए काफी संघर्ष करना होगा. पत्रकारिता को बचाना है तो एक नये आंदोलन की शुरुआत करनी होगी.

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